भटक रही थी बेचैन रात -
बिस्तर की सलवटों में
बाहर सुनसान सडक
पडी थी चुपचाप
टाँगें पसराए – जुल्फें बिखराए
बिस्तर की सलवटों में
बाहर सुनसान सडक
पडी थी चुपचाप
टाँगें पसराए – जुल्फें बिखराए
कॉर्पोरेशन के कर्मचारी
जा चुके थे अपने घरों को
कंघी कर उसके घने बालों में
कब ढला दिन
कब घिरी रात
और अब चुपके से
बिना किसी आहट के
जाने को है रात भी
रात की करवट में
उमस भरी गर्मी में
प्यास का तेज़ एहसास
किचेन में पडा पानी का ग्लास
बासी किचेन में
जीवन की हलचल थी
चूहों का एक परिवार
ढूँढ रहा था अपना आहार
जूठे बर्तनों में लिपटे थे
स्वादिस्ट खानों के अंश
और उन्हें कुतरने में लगे थे
छोटे बडे चूहों के अनेकों दंश
एक बडा सा कॉक्रोच
सिंक की मुंडेर पर बैठा
अपनी मूछें साफ कर रहा था
और जैसे कह रहा था
जीवन में जो है
अभी है – यही है
सुबह की पहली किरण के साथ
शुरु होगी नई कहानी
और अंत हो जाएगा इस कथा का
बासी किचेन की खमीरी गन्ध
रेशमी अन्धेरों का कोमल स्पर्श
मयस्सर है कुछ देर को ही और
कामवाली बाई आएगी सुबह
और धो डालेगी जूठे बर्तनों को
पानी की तेज़ धार में
बह जाएँगे सारे अनुलिप्त स्वाद
और शेष रह जाएगा
विम बार साबुन का अवसाद
रगड रगड कर
फिनाइल में भिगोए कपडों से
चमकाए जाएँगे फर्श -
आईनों की तरह
जिन आईनों में मुँह चिढाएँगी
अपनी ही शक्लें
कल जब नया सूरज उगेगा
सिंक की मुंडेर पर बैठा कॉक्रोच
वहाँ नहीं होगा
दिलचस्प है दोस्त.....लगा कविता धीरे धीरे ओर तल्ख़ होती चली जायेगी...पर अपना मेसेज फिर भी स्पष्ट देती है
ReplyDeleteशुक्रिया डाक्टर साहब!
ReplyDelete