एक प्राचीन मन्दिर
था. बिल्कुल जीर्ण – शीर्ण और खण्डहर स्वरूप. उस मन्दिर में भगवान रहते थे. लोगों
ने मन्दिर को तोड कर एक मस्जिद बना दिया. लेकिन भगवान टस से मस न हुए. वहीं
विराजमान रहे.
सदियाँ बीतीं – युग
बीता. लोग एक बार फिर एकत्र हुए. इस बार मस्जिद तोड कर उन्होंने एक भव्य मन्दिर का
निर्माण किया. हिंसा भडक उठी. बहुत लोग मारे गए. लेकिन भगवान फिर भी टस से मस न
हुए. वहीं विराजमान रहे.
नव-निर्मित मन्दिर
में भगवान के दर्शन के लिए श्रधालुओं की भीड लगी रह्ती. लोग दूर दूर से आते, चढावा
चढाते और मन्नते माँगते. लेकिन एक उपासक ऐसा भी था जिसका मन विचलित था. दिल में तरह तरह के विचार आते थे.
एक दिन जब वह दर्शन को आया तो उससे रहा न गया. वह भगवान से पूछ बैठा, “
हे प्रभू ! यह कैसी माया है ? इस स्थान के लिए इतना विध्वंस हुआ, हज़ारों
लोगों का रक्त बहा और आप बस मूक दर्शक बने बैठे रहे ?”
भगवान मुस्कराए, धीरे
से बोले, “वत्स ! संसार में
कलह के लिए मनुष्य को तो बस एक बहाना चाहिए.
मैं नहीं तो कई और मिल जाएँगे. लेकिन मेरी परेशानी समझने की कोशिश करो. एक ही मकान
में रह्ते रहते. मैं भी तो बोर हो जाता हूं !”
Wonderful! quite thoughtful...
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