हुस्नो-शबाब तो गया फ़ितरत किधर गई
होते हैं सामने भी तो तिरछी नज़र गई
उनकी खताएँ माफ़ हैं अशक़ों की ताब से
हम मुस्करा रहे थे तो तोहमत भी सर गई
ग़ुंचों में रंगो बू नहीं बादे सबा उदास है
अबके बहार आई भी आकर चली गई
रुखसार की सुर्खी में निगाहों का है असर
ज़ाहिर मगर करेंगे की सब बेअसर गई
उनकी इनायतों की मीयाद कुछ न पूछ
जब तश्ना लब हुए थे तो बारिश गुज़र गई
किसके बुलावे पर ‘जमील’ आए थे इस शहर
साज़ो सामान आ गया रूहानियत गई
(वागार्थ, मार्च ' 2012)