समुन्दर है, शहर है, लोगों का सैलाब है परे पडी है ज़िन्दगी और आदमी बेताब है
चुरा कर ‘फ्लोर’ का ‘इंडेक्स’ बना लेते बडे टावर शहर के विकास का यह नया हिसाब है
‘टेंडर’ निकलता रोज़ सडकों के ‘रिपेयर’ का हमारे घर का रास्ता रहता मगर खराब है
मल्टिप्लेक्स मॉलों की रौनक़ हो गई लैला मजनूँ के हाथ में बस वही गुलाब है
कहीं तो मिंटों में ‘डेलिवर’ है घर ‘ पिज़्ज़ा’ और कहीं बीमार को एक डॉक्टर नायाब है
जली हुई ट्रेनों में लगाते जा रहे नए डिब्बे बमों के फटने का क्या यही जवाब है
सुना है के कभी सोता नहीं तेरा शहर फिर भी
हर एक शख्स की आंखों में रंगीन ख्वाब है
हर एक शख्स की आंखों में रंगीन ख्वाब है
(कथाबिम्ब, मार्च - मई ' 2012)