The fleeting joys and the lingering sorrows...... the desires and the desperation...... battles won and the battles lost...... the tyranny of time!
Here is a cavalcade of memories and a colourful collage of frozen snapshots from the journey of life.

Saturday, May 21, 2011

पुरानी डायरी के पन्नों से........

शरीफ़ लोग


लोगों ने तब उसे पहली बार
निर्वसन देखा था
उनकी आँखें झपकी थीं
उनके क़दम लडखडाए थे

और दूसरी बार -
उनके होठों पर मुस्कराह्ट थी
उनकी आँखें चमक उठी थीं
 

   











 








फिर उसने उसका हाथ पकड लिया था
खूबसूरत आँखों में प्रश्नचिह्न थे
उसे गर्म लबों की अनुभूति हुई थी
और उसके होंठ हैरत से खुले थे
फिर उसके सर्द जिस्म को 
किसी गर्म स्पर्श ने जला दिया था

निर्वसन वह अब भी है
लोग उस राह अब भी जाते हैं
लेकिन ,
उनके होंठ सिकुडे हुए हैं
उनकी आँखों में नफ़रत है
उनके क़दमों में तेज़ी है
ये शरीफ़ लोग हैं

(' पाखी '-  जुलाई ' 2012)


मसीहा मर गया है 

समाज - 
रेलगाडी है 
जो पहुँचाता है
मंजिल तक 
हर किसी को
और जाते 
नोच लेता है जिससे कोई 
गद्दा, बल्ब या पंखा 
बतौर यादगार ! 

रोक लेता है जिसको 
कोई भी
चेन खींच कर
दो स्टेशनों के बीच
और बेच देता है जिसका कोयला 
ड्राइवर ! 

कुतुबमीनार है यह 
जिस पर चढ कर
हर कोई
मह्सूस करता है
अपने आप को
बहुत ऊँचा 
और जिसकी अन्धेरी सिढियों पर 
मौका पाते ही
आदमी बन जाता जानवर
और सामने मिल जाने वाली
किसी भी स्त्री को .....
और “स्टैम्पीड” हो जाता है !

समाज –
द्रौपदी है
जिसके शरीर को उधेड रहा है दुर्योधन 
और मूक बैठे हैं लोग 
पाण्डवों की तरह ! 

फतहपुर सिकरी है यह
जिसकी आलिशान इमार्तों में
अब कोई नहीं रहता 
जिसे देख कर लोग कहते हैं – 
बहुत सुन्दर !
और जिसकी दीवारों को खुरच कर
हर कोई लिख देता है
अपना नाम ! 

खण्डहर है किसी हवेली का 
जो खडा है बेमरम्मत ! 
विभिन्न दिशाओं से चलने वाली आँधियों ने
लडखडा दिया है जिसकी दीवारों को
वर्षा की बूँदें
सुडप रही हैं
जिसके सुर्खी- चूने को
आहिस्ता – आहिस्ता
और जिसकी मुंडेर पर बैठा कौवा
काँव काँव कर कह रहा है –
मसीहा मर गया है !
(' पाखी '- जुलाई ' 2012)


सुनहरी किरणों का शहर

गुफा अन्धेरी, तंग और सीलन भरी है
और वक़्त गुनाहों की तरह बोझल
बाहर कहीं सुनहरी किरणों का शहर है
जहाँ फूलों के खिलने से सुबह रंगीन हो जाती है
और नर्म धूप महबूब के बोसों की तरह
जिस्म में हरारत भर देती है
लेकिन सुनहरी किरणें यहाँ तक नहीं पहुँचती

यथार्थ और प्रयास के बीच का अंतराल
उस दिन सिमट गया
एक रास्ता खुला
और वह सुनहरी किरणों के शहर में पहुँच गया

उसने देखा बहुत सारे हमशक्लों को
दो हाथ और एक मुँह वाले लोग
जो एक हाथ से अपना मुँह भरते
और एक से दूसरे का बन्द करते थे
उसने देखा ज़मीन पीछे सरक रही है
और लोग अपना मुँह आगे किए चल रहे हैं -
लेकिन खडे हैं
और कुछ लोग जो हमशक्लों में से नहीं हैं
उल्टी दिशा में खडे हैं -
और ज़मीन की गती के साथ चल रहे हैं
सूरज इनका बन्दी है
और अपने इर्द गीर्द इन लोगों ने
सुनहरी किरणों के जाले बुन लिए हैं

उसने देखा यह सब कुछ
और फिर आगे बढ गया
कि शायद सुनहरी किरणों से दूर
उसका अपना शहर उसे से कहीं मिल जाए! 

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