The fleeting joys and the lingering sorrows...... the desires and the desperation...... battles won and the battles lost...... the tyranny of time!
Here is a cavalcade of memories and a colourful collage of frozen snapshots from the journey of life.

Tuesday, October 25, 2011

अन्ना हज़ारे

कभी कभी कुछ बातें
सुकून पहुंचाती हैं
अनायास ही
जुडा होता है उनसे
वह बीत गया कल
जहाँ कुछ तो ऐसा था
जिसे रखना था हमें
संजो कर
अपने वजूद की
अंतिम गहराईयों में
कुछ वैसे ही
की जैसे रखते हैं हम
सम्भाल कर
अपने पूर्वजों के धरोहर


आज के अखबार में छ्पी है
अन्ना की एक तस्वीर
लम्बी नाक और
उठती ठुड्डी के बीच
बनता हुआ
क्यूट’ सा कोण
चेहरे पर सरलता
भाव में तरलता
आँखों में व्यथा
और होठों पर मौन
सर पर तिरछी गाँधी टोपी
सफेद कुर्ता - सफेद धोती
जैसे किसी बीते युग का अवतार
टी.वी पर भी आ रहा था
अन्ना के अनशन का समाचार


भ्रष्टाचार के विरोध में 
शहरों की सडकों पर
जुलूस निकाले जा रहे थे
मुम्बई की लोकल ट्रेनों में
डेली पैसेंजर
तिरंगे झण्डे लहरा रहे थे
और स्कूलों में बच्चे
आन्दोलन की सफलता के लिए
देश भक्ति गीत गा रहे थे


ये तस्वीरों जैसे ले कर आई थीं
झलकियाँ अतीत की
नाचने लगे थे
आँखों के सामने
स्वतंत्रता संग्राम के मंज़र
तिरंगे के साए तले
आज़ादी की बातें
जोशो-ग़ज़ब के दिन
जागी हुई रातें
वे क़द्दावर नेता, वे सूफी, वे संत
जिनके रौशन किरदार से हुआ था
अन्याय और अन्धकार का अंत


टी.वी और अख़बारों में
समाचार तो और भी आए थे
लोकपाल बिल की ख़ातिर
एक महिला ने आत्म-दाह कर
अपने प्राण गँवाए थे
एक युवक ने लोकसभा में घुसकर
भारत माता की जय के
नारे लगाए थे
इन बिम्बों और प्रतिबिम्बों के बीच
महसूस तो यह होता था
कि किसी ने खोल दिए हों
सैकडों मुहाने उस नदी के 
जो बनी थी कल की यादों से 


वह बीत गया कल 
जहाँ कुछ तो ऐसा था
जिसे रखना था हमें
संजो कर
अपने वजूद की
अंतिम गहराईयों में
कुछ वैसे ही
कि जैसे रखते हैं हम
सम्भाल कर
अपने पूर्वजों के धरोहर

( 'कथाबिंब', जुलाई-सितम्बर ' 2011)

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