The fleeting joys and the lingering sorrows...... the desires and the desperation...... battles won and the battles lost...... the tyranny of time!
Here is a cavalcade of memories and a colourful collage of frozen snapshots from the journey of life.
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Sunday, August 18, 2013

परी

गुज़ारी थी तुमने कितनी ही रातें
बैठे सिरहाने नन्हीं परी के
ज्वर से तपते माथे पर
बर्फ की पट्टियां बदलते बदलते

नर्म तलवों को हथेली से
कुछ  इस  तरह सहलाते
कि जैसे उनका सारा ताप
सोख लोगे तुम
अपने ही शरीर में
जिस तरह कर लिया था आत्मसात
नीलकण्ठ ने
देवताओं की रक्षा के लिये
सागर मंथन का सारा विष

लेकिन वह नन्हीं परी
तौल कर हवा में अपने परों को
उड गई है आज
विस्तृत आकाश में

कुछ याद करो वह घडियां तुम
उन लम्बी काली रातों में
वे क्षण जो तुम्हारे अपने थे
जो मूक पडे थे वर्षों से
अब मुखरित हो कर कहते हैं
क्या मुझसे दोस्ती करोगे

Thursday, August 9, 2012

पहली मुहब्बत


खुशबू
उस जिस्म की
धीमीधीमी,
उतरती रही
रूह में
धीरे धीरे
तमाम उम्र

आंच
उस क़ुर्बत की
मधिममधिम,
उठती रही
कायनात में
हौले हौले,
ता क़्यामत
वो रौशन रातें
मिलन की,
गुज़र गईं
कुछ इस तरह
कि जैसे,
झपकी हो पलकें
बस अभी अभी
हज़ार यादें
क़तार बान्धे
तुम्हारे आगे
खडी हैं कब से
कुछ हक़ जता के
कुछ इल्तिजा से
वो कर रहीं हैं
सवाल तुम से
कि आज फिर से
बस अपनी खातिर
करोगे दोस्ती मुझसे ?

Friday, November 18, 2011

रात: एक मुख्तसर लफ्ज़


तूने देखा था सवेरा
रौशनी, आफताब
इन्द्रधनुष के सात रंग
राहगुज़र पर उग आया सब्ज़ पौधा


 











तूने सुना था,
भौरों का गुंजन,
कोयल के मधुर गीत,
फूलों की सरगोशी,
झरनों का संगीत 
 
रात का वीरान आंगन
अनदेखा, अंजाना
मुर्दा औरत की सर्द गोद
डूबता सूरज,
दम तोडती लौ,
दूर गुमनाम पहाडियों में गूंजती खामोशी
वादियों में घिरती हुई पीली रात


 












तूने देखा था सहर
ठहरी हुई खामोश रात नहीं
दिन ढल जाने के लिए
रात एक मुख्तसर लफ्ज़ है

('हंस', अगस्त ' 2011)

Tuesday, October 25, 2011

अन्ना हज़ारे

कभी कभी कुछ बातें
सुकून पहुंचाती हैं
अनायास ही
जुडा होता है उनसे
वह बीत गया कल
जहाँ कुछ तो ऐसा था
जिसे रखना था हमें
संजो कर
अपने वजूद की
अंतिम गहराईयों में
कुछ वैसे ही
की जैसे रखते हैं हम
सम्भाल कर
अपने पूर्वजों के धरोहर


आज के अखबार में छ्पी है
अन्ना की एक तस्वीर
लम्बी नाक और
उठती ठुड्डी के बीच
बनता हुआ
क्यूट’ सा कोण
चेहरे पर सरलता
भाव में तरलता
आँखों में व्यथा
और होठों पर मौन
सर पर तिरछी गाँधी टोपी
सफेद कुर्ता - सफेद धोती
जैसे किसी बीते युग का अवतार
टी.वी पर भी आ रहा था
अन्ना के अनशन का समाचार


भ्रष्टाचार के विरोध में 
शहरों की सडकों पर
जुलूस निकाले जा रहे थे
मुम्बई की लोकल ट्रेनों में
डेली पैसेंजर
तिरंगे झण्डे लहरा रहे थे
और स्कूलों में बच्चे
आन्दोलन की सफलता के लिए
देश भक्ति गीत गा रहे थे


ये तस्वीरों जैसे ले कर आई थीं
झलकियाँ अतीत की
नाचने लगे थे
आँखों के सामने
स्वतंत्रता संग्राम के मंज़र
तिरंगे के साए तले
आज़ादी की बातें
जोशो-ग़ज़ब के दिन
जागी हुई रातें
वे क़द्दावर नेता, वे सूफी, वे संत
जिनके रौशन किरदार से हुआ था
अन्याय और अन्धकार का अंत


टी.वी और अख़बारों में
समाचार तो और भी आए थे
लोकपाल बिल की ख़ातिर
एक महिला ने आत्म-दाह कर
अपने प्राण गँवाए थे
एक युवक ने लोकसभा में घुसकर
भारत माता की जय के
नारे लगाए थे
इन बिम्बों और प्रतिबिम्बों के बीच
महसूस तो यह होता था
कि किसी ने खोल दिए हों
सैकडों मुहाने उस नदी के 
जो बनी थी कल की यादों से 


वह बीत गया कल 
जहाँ कुछ तो ऐसा था
जिसे रखना था हमें
संजो कर
अपने वजूद की
अंतिम गहराईयों में
कुछ वैसे ही
कि जैसे रखते हैं हम
सम्भाल कर
अपने पूर्वजों के धरोहर

( 'कथाबिंब', जुलाई-सितम्बर ' 2011)

Sunday, May 22, 2011

सिंक की मुंडेर पर बैठा कॉक्रोच

भटक रही थी बेचैन रात -
बिस्तर की सलवटों में
बाहर सुनसान सडक
पडी थी चुपचाप
टाँगें पसराए – जुल्फें बिखराए
कॉर्पोरेशन के कर्मचारी
जा चुके थे अपने घरों को
कंघी कर उसके घने बालों में

कब ढला दिन
कब घिरी रात
और अब चुपके से
बिना किसी आहट के
जाने को है रात भी

रात की करवट में
उमस भरी गर्मी में
प्यास का तेज़ एहसास
किचेन में पडा पानी का ग्लास
 
बासी किचेन में
जीवन की हलचल थी
चूहों का एक परिवार
ढूँढ रहा था अपना आहार
जूठे बर्तनों में लिपटे थे
स्वादिस्ट खानों के अंश
और उन्हें कुतरने में लगे थे
छोटे बडे चूहों के अनेकों दंश

एक बडा सा कॉक्रोच
सिंक की मुंडेर पर बैठा
अपनी मूछें साफ कर रहा था
और जैसे कह रहा था
जीवन में जो है
अभी है – यही है
सुबह की पहली किरण के साथ
शुरु होगी नई कहानी
और अंत हो जाएगा इस कथा का

बासी किचेन की खमीरी गन्ध
रेशमी अन्धेरों का कोमल स्पर्श
मयस्सर है कुछ देर को ही और
कामवाली बाई आएगी सुबह
और धो डालेगी जूठे बर्तनों को
पानी की तेज़ धार में
बह जाएँगे सारे अनुलिप्त स्वाद
और शेष रह जाएगा
विम बार साबुन का अवसाद

रगड रगड कर
फिनाइल में भिगोए कपडों से 
चमकाए जाएँगे फर्श - 
आईनों की तरह
जिन आईनों में मुँह चिढाएँगी
अपनी ही शक्लें

कल जब नया सूरज उगेगा
सिंक की मुंडेर पर बैठा कॉक्रोच
वहाँ नहीं होगा