The fleeting joys and the lingering sorrows...... the desires and the desperation...... battles won and the battles lost...... the tyranny of time!
Here is a cavalcade of memories and a colourful collage of frozen snapshots from the journey of life.

Thursday, June 21, 2012

एक कार की चोरी

महानगरी दिल्ली – और दिल्ली का दिल कनॉट प्लेस. पता ढूढने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई थी विवेकानन्द को.  टैक्सी ने जहाँ उतारा था, उससे थोडी ही दूर पर वह आलीशान इमारत थी. ग्राउन्ड फ्लोर के उपर एच. डी. एफ. सी बैंक का बडा सा बोर्ड लगा था. वह सीढीयाँ चढ कर उपर आ गया.
सर जी अपना मोबाइल फोन और चाभियाँ निकाल कर ट्रे में डाल दीजिए और इस गेट से होकर अन्दर आइए. गार्ड ने मेटल डिटेक्टर युक्त लकडी के चौखट की ओर इशारा करते हुए कहा. गेट के दूसरी ओर उसकी अमानत उसे लौटा दी गई.
अन्दर एक बडा सा हॉल था. सुन्दर फर्नीचर और आधुनिक उपकरणों से सुस्सिजत. फर्श पर बडे - बडे चमकदार टाइल्स लगे थे जिन पर चलने में फिसल जाने का डर महसूस होता था. सरकारी दफ्तर में काम करनेवाला विवेकानन्द एक पल को तो जैसे ठिठक गया. इतना बढिया आफिस! यहाँ तो काम करने में भी आनन्द है! हॉल के एक ओर थोडी थोडी दूरी पर मॉड्युलर डेस्क लगे थे. हर एक के पीछे स्मार्ट कपडे पहने आकर्षक लडकियाँ बैठी थीं. लडकियों के सामने बैठे बैंक के ग्राहक अपनी ज़रूरत की बातें कर रहे थे. लडकियाँ थोडा मुस्करातीं, सर हिला कर थोडा जवाब देतीं और फिर मैनिक्योर की हुई अपनी उँगलियाँ कम्पयूटर के की बोर्ड पर दौडा कर स्क्रीन पर कुछ देखने लग जातीं.
हॉल की दूसरी तरफ, एक क़तार में, बहुत सारे केबिन थे. इन्हीं में से कोई एक केबिन वेल्थ मैनेजर संतोष शर्मा का होगा. विवेकानन्द ने घडी की ओर देखा. चार बज कर पन्द्रह मिन्ट हो चुके थे. समीर अभी तक नहीं पहुंचा था. उसे तो चार बजे ही बैंक आने के लिए कहा था. रिसेप्शन में जा कर वह समीर की प्रतीक्षा करने लगा.
दिल्ली आने का दरअसल विवेकानन्द का कोई इरादा नहीं था. यह कार्यक्रम तो अरशद के व्यवहारिक ज्ञान का परिणाम था. घटनाक्रम की शुरुआत लगभग सवा साल पहले हुई थी. विवेकानन्द कुछ खरीदारी करने पटना मार्केट गया था. हमेशा की तरह कार उसने अशोक राजपथ पर सुलभ शौचालय के बगल में खडी की थी. खरीदारी पूरी कर जब वह लौटा तो क़दम स्वतः ही पार्किंग वाली जगह वापस ले आए. दिल धक से रह गया. कार वहाँ नहीं थी. पहले तो विश्वास ही नही हुआ. कार थोडा आगे या पीछे लगा दी होगी. लेकिन दो – चार चक्कर लगाने के बाद वह अच्छी तरह समझ गया कि गाडी चोरी हो गई है. बाद की सारी प्रक्रिया उसने यंत्रवत पूरी की थी. पिरबहोर थाने में रिपोर्ट दर्ज कराना, बीमा कम्पनी में चोरी दावे की सूचना देना, इत्यादी. भारी मन और थका शरीर ले कर वह देर रात घर लौटा था.
अरशद को गाडी की चोरी की खबर एक सप्ताह बाद मिली थी. बहुत झल्लाया था वह. साले ! पहले क्यों नहीं बताया?
यार, पुलिस और बीमा कम्पनी दौडने से फुरसत मिलती तब ना!
बहुत बडा अफसर बन गया है तू. चोरी वाले दिन बताता तो अबतक तेरी गाडी बरामद हो  गई होती.
क्या कह रहे हो......? कैसे ......?                                                
अरे यह सब तुम छोडो. अपने मुख्तार भाई किस मर्ज़ की दवा हैं? आज शाम सब्ज़ीबाग़ में मिलो. एक ट्राय मारेंगे हमलोग. आगे तुम्हारी क़िस्मत ! अरशद मुस्करा कर बोला. 
अरशद उसके बचपन का मित्र है. गोरे-साफ चेहरे पर मोटे नाक–नक्श. लम्बा क़द और मस्त–मौला व्यक्तित्व. एक समय था जब सारी मित्र मन्डली पर आई.ए.एस. परीक्षा का बुखार चढा था. विवेकानन्द और अरशद साथ साथ ही कोचिंग इन्सटच्यूट जाते थे. सिलेबस समाप्त करने की चिंता उसे सताती रहती लेकिन अरशद था कि हमेशा मस्त रहता. कोचिंग इन्सटच्यूट  में एडमीशन लेने के अरशद के बहुत से कारण थे जिनमें आई.ए.एस. परीक्षा की तैयारी कहीं नहीं थी. पहला कारण था उसका बूढा - बीमार बाप जिसकी अंतिम ईच्छा उसे आई.ए.एस. ऑफीसर बनाने की थी. अरशद अपने बाप को दुखी नहीं करना चाहता था. उसे मालूम था अब्बा की ज़िन्दगी ज़्यादा नहीं है. जबतक आई.ए.एस. परीक्षा में उसके तीन प्रयास पूरे होंगे, अब्बा स्वर्ग सिधार चुके होंगे. क्या ज़रूरत थी एक बूढे बाप से उसके आखिरी सपने छीनने की? वैसे इंस्ट्च्यूट जाने के उसके कारण और भी थे. जैसे कि वहाँ आने वाली सुन्दर - स्मार्ट लडकियों का सानिघ्य ! या फिर वहाँ से लौटते समय चौधरी की दुकान पर दोस्तों के साथ, चाय और सिगरेट के बीच, दुनियाभर की बहसों का अलौकिक आनन्द, वगैरह-वगैरह. 
अरशद के पिता बडे सूझ – बूझ वाले इंसान साबित हुए. आई.ए.एस. परीक्षा के तुरंत बाद ही, बिना  परीक्षाफल का इंतज़ार किये, अरशद को हर बन्धन से आज़ाद कर चल बसे. गाँव में कुछ ज़मीन छोड गए थे, दो–चार आम के बगीचे भी थे. खाने पीने की कमी नहीं थी. पाँच–छः वर्ष यूँ ही गुज़र गए. अरशद ने कोई नौकरी नहीं की. आज़ाद पंछी की तरह आकाश में उडता रहा. फिर बाद में शहर में ही छोटे मोटे सिविल कॉंट्रैक्ट लेने लगा. जान पहचान वाले हर सरकारी विभाग में थे. सांसारिक सूझ-बूझ की भी कमी नहीं थी. धीरे धीरे काम चल निकला. इन्नोवेटिव इंफ्रासट्रक्चर एण्ड सिविल वर्क्स नाम से कम्पनी खोल ली. आमदनी बढ गई लेकिन अरशद रहा वैसे का वैसा - मस्त-मौला, यारों का यार !
  सब्ज़ीबाग में पुराने इंगलिश सिमेटरी के फाटक से लगी हुई एक चाय की दुकान है. यह बैठकबाज़ी के लिए बडे क़ायदे की जगह है. गेट के अन्दर अंग्रेज़ों की पुरानी आयतकार क़ब्रें बेंच का काम करती हैं. संगमर्मर की बनी इनकी मुंडेरों पर बैठ कर चाय की चुस्कियों के बीच आराम से बातचीत होती है. दोनों दोस्त उस शाम भी वहीं  मिले थे. गपशप और चाय के बाद अरशद विवेकानन्द को मुख्तार भाई से मिलाने उनके घर ले गया. परिचय और दो चार इधर उधर की अनौपचारिक बातों के बाद अरशद ने मुख्तार भाई को आने का सही प्रयोजन बताया. मुख्तार भाई विवेकानन्द की ओर उन्न्मुख हुए.
       कौन सी गाडी थी आपकी?
       जी .......मारुती 800... ए.सी. डीलक्स.
       घटना कब की है?
       बस पिछ्ले सप्ताह .... 5 फरवरी की बात है.
       5 फरवरी ?....... इतने दिन कहाँ रह गए आप लोग? मुख्तार भाई बोले और उत्तर की प्रतीक्षा  किये बिना अपनी बात जारी रखी, आजकल बडी गहमा-गहमी है. महीने भर बाद एसेम्बली चुनाव है. गाडियाँ बहुत चोरी हो रही हैं."
       लेकिन चुनाव से कार की चोरी का क्या सम्बन्ध? विवेकानन्द ने झिझकते हुए पूछा.
       अरे भाई! कैसी बात कर रहे हैं आप? चुनाव में नेताओं को गाडियों की ज़रूरत पडती है या नहीं? और इतनी सारी गाडियाँ क्या भाडे पर आती हैं? मुख्तार भाई मुस्करा रहे थे. उन्होंने जेब से मोबाइल फोन निकाला और किसी का नम्बर मिला कर विवेकानन्द की कार की चोरी के बारे में बताने लगे. यह भी निर्देश दिया कि जानकारी मिलते ही वापस मोबाइल पर सूचना दी जाए.
       इसके बाद का वार्तालाप बडा ही ज्ञाणवर्धक  साबित हुआ. मुख्तार भाई ने दोनों दोस्तों को कार के चोरों और कार चुराने की उनकी कला के बारे में दिलचस्प जानकारी दी.
       यह एक अलग दुनिया थी. कला-कौशल और रोमांच से भरपूर. कार-चोरों की एक पूरी टीम होती है जिसका हर सदस्य किसी ‘रिले रेस’ के धावकों की तरह लक्ष्य की प्राप्ती में अपना महत्वपूर्ण योगदान देता है. सारी कारवाई एक सुनियोजित मिशन की तरह पूरी की जाती है. पहला सदस्य घटना स्थल का सावधानीपूर्वक सर्वेक्षण करता है. उसका काम एक ‘सॉफ्ट टार्जेट’ का चयन करना है. पार्क की हुई गाडियों में ऐसी गाडी चुनी जाती है जिसमे कोई अतिरिक्त सुरक्षा लॉक न लगे हों. आदर्श तो ऐसी कारें होती हैं जिनके मालिक जल्दी में या भूलवश, खिडकी के शीशे या दरवाज़े खुले छोड गये हों. चोरी के लिए लोकप्रिय मॉडलों की कारें उपयुक्त होती हैं क्यों की इनकी खपत चोर मार्केट में आसानी से की जा सकती है. लक्ष्य निर्धारित करने के बाद पहला सदस्य कुशलता से कार का दरवाज़ा खोल कर इंजिन की वायरिंग से छेड-छाड कर कार को स्टार्ट करने योग्य बना लेता है. इसके बाद कार ‘पायलट’ के सुपुर्द कर दी जाती है. 
‘पायलट’ एक माना हुआ ड्राईवर होता है. उसका काम कार को घटना स्थल से उडा कर पूर्व निर्धारित किसी ‘सुरक्षित’ स्थान तक पहुंचाने का है. यह जगह घटना स्थल से ज़्यादा दूर नहीं होती है. यहाँ दो-तीन कुशल मेकेनिक कार की प्रतीक्षा में पहले से ही तैयार बैठे होते हैं. ये लोग कार की बाहरी साज-सज्जा में ऐसा फेर बदल करते हैं कि देखने वाला पहचान भी न पाए कि यह वही कार है जिसे अभी अभी यहाँ लाया गया था! पुराने नम्बर प्लेट उतार कर नए नम्बर प्लेट लगा दिए जाते हैं. यदि शीशों पर सन फिल्म लगी हो तो उसे निकाल दिया जाता है और यदि न लगी हो तो नई लगा दी जाती है. नए सीट कवर चढा दिये जाते हैं. कार के आगे और पीछे के बम्पर, चक्कों के वील कैप, मड फ्लैप, स्टीयरिंग वील कवर इत्यादि बदल दिये जाते हैं. नये हार्न, नये स्टिकरों के प्रयोग इत्यादी अनेक कलाकारियों से घंटे भर में कार की रूप रेखा ऐसी बदल दी जाती है कि उसका मालिक तक उसे पहचान न पाए!
इसके बाद आता है ‘रिले रेस’ का अंतिम चरण जिसे उचित समय ले कर शांती से पूरा किया जाता है. गाडी गैरेज ले जाई जाती है जहाँ उसका रंग परिवर्तन कर बिल्कुल नई पहचान दी जाती है. बीमा कम्पनियों द्वारा कबाड में बेची गई गाडियों के आर. सी बुक बाज़ार से हासिल कर बडी चतुराई से इनकी पहचान चोरी की गाडियों को दे दी जाती है. यहाँ तक कि जाली इंजिन और चेसिस नम्बर भी पंच कर दिए जाते हैं. अब चोरी की गाडी आसानी से सेकण्ड- हैण्ड गाडियों के मार्केट में बेच दी जाती है.  
अचानक कोयल के कूकने की मधुर आवाज़ आने लगी. मुख्तार भाई के मोबाइल पर इंकमिंग काल आ रहा था!
हलो......! हाँ भाई बताओ. मुख्तार भाई का पूरा ध्यान कान से लगे मोबाइल पर था.
अच्छा...! हाँ.....हाँ...! मुख्तार भाई धीरे धीरे सर हिला रहे थे.
एक मिन्ट ज़रा होल्ड करना. मोबाइल को कान से हटा कर और उस पर दूसरा हाथ रखते हुए वे विवेकानन्द की ओर मुडे, आपकी मारूती वाईट कलर की थी?
जी! विवेकानन्द ने हामी भरी.
मोबाइल वापस कान मे लगा कर मुख्तार भाई बोले, ठीक है..... वही गाडी है. पटना मार्केट के सामने से गायब हुई थी....... क्यों ?....... हूँ .......! अच्छा ठीक है......खुदा हाफिज़ !  
मुख्तार भाई ने गहरी सांस ली.लो भाई! यह केस तो हाथ से गया. गाडी गाँधी सेतू टप चुकी है! अब गंगा पार किसी विधायक के क्षेत्र में चुनाव प्रचार कर रही होगी. मतलब यह कि मुर्गी हज़म - किस्सा खत्म!
एक साल दो महीने बारह दिनों के निरंतर प्रयास के बाद विवेकानन्द को बीमा कम्पनी से एक लाख साठ हज़ार रुपये का क्लेम चेक प्राप्त हुआ था. दावे के भुगतान में देरी का कारण पुलिस रिपोर्ट थी. बीमा कम्पनी को दावा के निपटारे के लिए पुलिस का अंतिम रिपोर्ट चाहिए था और पुलिस अंतिम रिपोर्ट देने को राज़ी नहीं थी. क़ानूनन पुलिस को अंतिम रिपोर्ट घटना के छः महीने के भीतर दे देनी चाहिए. लेकिन जिस समाज में हवलदार का रुतबा शिक्षक से ऊँचा हो वहाँ पुलिस विभाग को नियम-कानून कौन बताए?
नई गाडी की कीमत तीन लाख से ऊपर थी. दावे की रक़म में तो ढंग की पुरानी मारुती भी मिलने से रही!  अरशद की राय थी कि विवेकानन्द दिल्ली जा कर गाडी खरीदे. बडे शहरों में पुरानी गाडियाँ सस्ते दरों पर उपलब्ध हो जाती हैं. ड्राईवर साथ रख कर दिल्ली से पटना गाडी लाने का खर्चा आठ - दस हज़ार से ज़्यादा नहीं बैठेगा जबकि  गाडी के मुल्य में कम से कम पच्चीस – तीस हज़ार की बचत हो जाएगी.
टाईम्स ऑफ इंडिया का दिल्ली एडीशन खरीदा जाने लगा ताकि उनमें प्रकाशित विज्ञापनों में विवेकानन्द अपने लिए कोई उपयुक्त कार ढूँढने सके. विज्ञापनों में कॉंटैक्ट नम्बर भी होते थे. एस. टी. डी पर बेक्रेताओं से बात हो जाती थी. अधिकतर विज्ञापन कार ब्रोकरों के होते थे जो बढा – चढा कर दाम बताते थे और जिनपर भरोसा नहीं किया जा सकता था. 
एक सप्ताह की माथापच्ची के बाद विवेकानन्द की बात संतोष शर्मा से हुई. वह एच.डी.एफ.सी बैंक की क्नाट प्लेस शाखा में वेल्थ  मैनेजर के पद पर कार्यरत था. बैंक से उसे बडी गाडी खरीदने के लिए लोन आवंटित हुआ था. अपनी मात्र तीन साल पुरानी मारुती 800 बेचना चाहता था. विवेकानन्द की मौसी का लडका  समीर हाल ही में दिल्ली की किसी आइ.टी. कम्पनी में सॉफ्टवेयर ईंजिनियर की नौकरी पर लगा था. विवेकानन्द ने उसे ही कार देखने के लिए संतोष शर्मा के घर भेज दिया. फोन पर उसने विवेकानन्द को बताया, ‘ भैया तुरंत सौदा कर लो. ऐसी गाडी फिर नहीं मिलेगी!विवेकानन्द ने उसके माध्यम से संतोष शर्मा को टोकन के पाँच हज़ार रुपये कैश दिलवा कर गाडी का सौदा एक लाख पचास हज़ार में तय कर लिया. अब बस दिल्ली जा कर बाकी पैसा देना था और गाडी ले कर वापस पटना आ जाना था.
अचानक किसी की तेज़ आवाज़ से उसकी विचार श्रृंखला टूट गई. “नमस्ते भैया! आफिस में नया प्रोजेक्ट मिला है इसलिये निकलने में देर हो गई.” उसका मौसेरा भाई समीर सामने खडा था.
कोई बात नहीं. चलो शर्मा जी से मिल कर काम खत्म किया जाए.” विवेकानन्द ने सोफे से उठते हुए कहा .
दोनो संतोष शर्मा के केबिन के बाहर पहुंच गए. केबिन का उपरी भाग शीशे का था. उन्होंने देखा, अन्दर टाई और सूट में पैंतिस वर्ष के आस पास का एक व्यक्ती बैठा टेलीफोन पर बातें कर रहा है.
केबिन का दरवाज़ा खोल कर विवेकानन्द और समीर अन्दर आ गए. संतोष ने उनकी तरफ एक उचटती सी नज़र डाली और कुर्सी पर बैठने का इशारा किया.
जी! मैं विवेकानन्द मिश्रा ..... पटना से आया हूँ ..... आप से गाडी की बात हुई थी.” संतोष के फोन रखते ही विवेकानन्द ने उसकी ओर हाथ बढाते हुए कहा.
“हाँ....  हाँ..... मैं समझ गया. ”  संतोष ने कुछ बौखलाते हुए हाथ मिलाया.
“मैं एक लाख पैंतालिस हज़ार का ड्राफ्ट साथ लाया हूँ. आर.टी.ओ के फार्म भी तैयार हैं. गाडी की डिलेवरी कब देना चाहेंगे?”
“देखिए विवेकानन्द जी! ....बात ऐसी है कि गाडी तो अब मैं नहीं बेच रहा हूँ.” संतोष शर्मा की आवाज़ में असमंजस साफ झलक रहा था. उसने टेबुल पर पडा हुआ शीशे का सुन्दर पेपर वेट हाथ में उठा लिया और ग़ौर से उसे देखने लगा.  
“क्या मतलब है आपका?”  विवेकानन्द को ऐसे उत्तर की बिल्कुल अपेक्षा नहीं थी. “ आप जानते हैं ना मैं इतनी दूर से दिल्ली सिर्फ गाडी लेने आया हूँ.”
“पांच ह्ज़ार का टोकन भी आपने लिया है.” समीर ने अपने भैया की सहायता करने की कोशिश की.
“यह सब ठीक है लेकिन कार बेचना अब सम्भव नहीं है.” संतोष का लहजा बिल्कुल सपाट था.
“यह क्या मज़ाक है.” विवेकानन्द को ताव आ गया. “आपने ज़रूर किसी और से ऊँची कीमत पर सौदा कर लिया है.” उसने चिल्लाकर सीधा आक्षेप लगाया.
“देखिये प्लीज़! धीरे बोलिए. बगल वाले केबिन में मेरा बॉस बैठा है. विश्वास कीजिए. मैने किसी से कोई सौदा नहीं किया है.”
“लेकिन फिर कार नहीं बेचने का क्या तुक है? ” विवेकानन्द अभी भी गुस्से में था.
“देखिये! दरअसल आपके और मेरे सौदे के बीच मेरा बाप आ गया है. और मेरे बाप को मैं कुछ नहीं कह सकता.” संतोष की आवाज़ में बडी झुंझलाहट थी.
“आपके बाबूजी का इस बात से क्या सम्बन्ध? ” विवेकानन्द ने चिढ कर पूछा.  
“जब बाबूजी को पता चला कि मैं कार 1,50,000/- रुपये में बेच रहा हूँ तब उन्होंने इस राशी का चेक काट कर मेरे पास भेज दिया और कहा, ‘ कार की मुझे ज़रूरत है. यह कार तुम मुझे दे दो.’ अब आप ही बताइए अपने पिता को मैं कैसे मना कर सकता हूँ. मैने पैसे तो नहीं लिये हैं,  लेकिन कार तो अब मुझे उन्हें ही देनी पडेगी.”  अजीब स्थिति थी. विवेकानन्द की समझ मे नही आ रहा था वह अब क्या बोले. 
“देखिए! मैं कार आप को ही बेचना चाहता हूँ. अपने ही बाप से पैसे लिए तो समाज में लोग क्या कहेंगे? और अगर ऐसे ही दे दी तो घर पर कार बेमतलब पडी रहेगी और पैसे का नुक्सान अलग से होगा. नई गाडी के लिए जो लोन मिला है उसके मार्जिन मनी के लिए मुझे इस पैसे की ज़रूरत है. बाबुजी को बुढापे में गाडी खरीदने की अजीब सनक है! रिटायर हो चुके हैं. उन्हें गाडी कि क्या ज़रूरत है?”  
“आप बाबूजी से कह दीजिए कि आपने मुझसे गाडी का टोकन ले लिया है.” विवेकानन्द ने सुझाव दिया.
“नहीं.... बाबूजी समाचार पत्र में विज्ञापन पढने के बाद से ही मुझसे कार खरीदने की बात बोल चुके हैं. अब यह कैसे कहूँ कि उनके कहने के बाद भी मैंने किसी से टोकन ले लिया है.”  संतोष लाचारी से बोला.
       “फिर आप ही बताईए गाडी मुझे कैसे मिलेगी?”
“ठहरिए.... एक रास्ता है. मुझे मालूम है बाबूजी के बैंक एकाउंट में कुल दो लाख रुपये हैं. हर महीने पेंशन से बचा बचा कर उन्होंने जमा किए हैं. कार के लिए वह डेढ लाख से ज़्यादा खर्च नहीं करेंगे.”
“तो.........  ?” विवेकानन्द की समझ में बात बिल्कुल नही आई.
“आप बाबूजी से आज शाम स्वयं मिलीए. उन्हें बताईए कि आप गाडी लेने पटना से आए हैं और उसकी क़ीमत दो लाख दे रहें!” संतोष के चेहरे पर एक कुटील मुस्कराहट खेल गई.
“लेकिन आप ने तो मुझसे डेढ लाख में तय किया है.” विवेकानन्द अचकचा कर बोला.
“अरे भाई कुछ तो समझा करो ! हमारी और आपकी बात वही रहेगी लेकिन बाबूजी को जब यह पता चलेगा कि कार दो लाख में बिक रही है तब वह स्वयं ही पीछे हट जाएंगे. इतना पैसा वह खर्च नहीं करना चाहेंगे और मुझे अधिक दाम मिलते देख कार बेचने को मना भी नहीं कर पाएंगे. इस तरह आपका काम हो जाएगा.” संतोष अपने एक कुशल वेल्थ मैनेजर होने का पूरा सबूत दे रहा था.  
नियत कार्यक्रम के अनुसार विवेकानन्द अगले दिन शाम को पाँच बजे संतोष के घर वसंत विहार पहुँचा. संतोष ने कह दिया था कि वह बैंक से रात नौ बजे के बाद ही घर लौटेगा. इस बीच उसके पिता से विवेकानन्द को सारी बात कर लेनी थी. संतोष इस वार्तालाप में सम्म्लित नहीं होना चाहता था.
काल बेल की आवाज़ सुन कर दरवाज़ा खोलने वाले व्यक्ती को देख कर ही विवेकानन्द समझ गया कि वे  संतोष के पिता हैं. लम्बा छरहरा शरीर, सिर पर बिल्कुल छोटे कटे सफेद बाल जैसे कि अभी हाल में ही मुडवाए गए हों, आँखों पर गाँधीनुमा गोल चश्मा और शरीर पर धोती और कुर्ता. ऐसा सरल-सुगम व्यक्तित्व कि झुक कर पाँव छूने का मन होता था.
“तुम ज़रूर विवेकानन्द हो! संतोष ने मुझे तुम्हारे बारे में बताया था. दरवाज़ा खोलने वाले व्यक्ति ने  मुस्कराते हुए कहा. 
“जी, प्रणाम!” विवेकानन्द ने दोनो हाथ जोड दिए.
“मेरा नाम दिवाकर शर्मा है. संतोष मेरा इकलौता बेटा है.” शर्माजी विवेकानन्द को ड्राइंग-रूम में ले आए और फिर आगे बोले. “बैठो – बैठो ! आराम से बैठो ! मैं अभी आया.”
थोडी ही देर में शर्माजी एक ट्रे में पानी का गलास और कटे हुए फलों की तश्तरी ले कर लौटे. “मैं यहीं सरकारी स्कूल में अध्यापक था. हेडमास्टर हो कर रिटायर हुआ.” 
शर्माजी को यह कहने की कोई ज़रूरत नहीं थी. ड्राइंग-रूम के अन्दर आते ही विवेकानन्द को लगा था जैसे किसी हाई  स्कूल के प्रधान अध्यापक के ऑफिस में आ गया हो. सामने की दीवार पर गाँधी, नेहरू और सुभाष की फ्रेम की हुई तस्वीरें थीं और उनके नीचे क्रम से किताबों की अलमारियाँ रखी थीं. अलमारियों के उपर भिन्न-भिन्न आकार के कप और ट्राफियाँ बडे क़रीने से सजाई गई थीं.
“तो आप कार खरीदने के लिए पटना से आए हैं.” शर्माजी बोल रहे थे. “ क्यों पटना में पुरानी कारें नही मिलतीं?
“जी, मिलती तो हैं लेकिन दिल्ली की तरह सस्ते दामों में नहीं.”
“अरे भई ! दो लाख रुपये में सस्ती तो बिल्कुल नही है!” शर्माजी ने कार का मुल्य स्वयं ही दो लाख बता कर विवेकानन्द का काम आसान कर दिया था. ज़ाहिर था, संतोष अपना होमवर्क अच्छी तरह करने के बाद ही ऑफिस गया था.       
“जी, कार अच्छे कंडीशन में हो तो ठीक ही है.”
“संतोष को देखो ! मुझे बताए बिना ही समाचार पत्र में विज्ञापन दे डाला. मैंने तो कहा था लाख- डेढ लाख रुपये मुझसे ले लो और कार घर में ही रहने दो. कार घर में रह्ती तो मेरे ही कुछ काम आती. सोचा था एक ड्राइवर रख लूंगा. कभी-कभार दोस्तों से मिल आया करूँगा. डॉक्टर के यहाँ जाने में भी आसानी हो जाएगी. कभी बहु-बच्चे भी घूम आएंगे. संतोष तो अपनी नई कार ऑफिस ले जाएगा. और उसके पास कहाँ समय है किसी के लिए?”
 विवेकानन्द मौन रहा और शर्माजी बोलते रहे. “ वहाँ रखी ट्राफियां देख रहे हो बेटा ? सारी की सारी संतोष ने जीतीं हैं. बडा होनहार विधार्थी था. मैं चाहता था कॉलेज का प्रोफेसर बने. लेकिन क्या बताऊँ, जाने कहाँ से उसपर फाईनैंस का भूत सवार हो गया. कहने लगा टीचर को पैसा नहीं. कितना पैसा चाहिए एक आदमी को अपना परिवार चलाने के लिए? मैं तो एक स्कूल का मामूली अध्यापक था. मैंने कैसे बिताया अपना जीवन?”
“कैरियर का तो अपना - अपना च्वॉइस होता है.” विवेकानन्द संजीदगी से बोला.
“इसे तुम कैरियर कहते?”  शर्माजी के स्वर में उदासी थी.  “ सुबह सात बजे घर से निकलना और रात में दस बजे वापस आना. यह कैसा जीवन है? कुछ समय अपने लिये भी तो होना चाहिये इंसान के पास.”
“प्राइवेट बैंकों में तो काफी काम करना होता है.” विवेकानन्द जैसे संतोष की ओर से सफाई दे रहा था.
“काम तो हमलोग भी करते थे. लेकिन काम आदमी किसके लिए करता है? पैसा किसकी खातिर कमाता है? यदि तुम्हारे पास अपने बीवी बच्चों के लिए ही समय नही है तो फिर क्या मतलब है ऐसी नौकरी का?”  शर्माजी भावुक होते जा रहे थे.
“जी यह बात तो आप ठीक ही कह रहे हैं.” विवेकानन्द ने हामी भरी.
“मेरी बहु दोनों बच्चों को लेकर कुछ दिनों के लिए मायके गई है. और वह भी क्या करे? संतोष तो रात दस बजे के पहले कभी घर आते नहीं. उनकी राह देखते देखते दोनों बच्चे भी सो जाते हैं. तुम ही बताओ यह कैसा पारिवारिक जीवन है? कॉलेज में तो पढने - पढाने का माहौल होता है. बात-व्यवहार के लिए समय होता है. साल में दो-तीन लम्बी छुट्टियाँ भी होती हैं.”
“क्या संतोष जी को प्राध्यापक की नौकरी पसन्द नहीं थी?”
       “ भाई उसने तो मुझे साफ-साफ कह दिया था. ‘ बाबू मुझे तुम्हारी तरह कम पैसे की नौकरी नहीं चाहिए. मुझे पैसे कमा कर जीवन की हर सुख-सुवीधा प्राप्त करनी है.’ तुम ही बताओ इस रास्ते की मंज़िल कहाँ है? किसी की ज़रूरत पूरी होती है कभी? और संसार से कोई लेकर भी क्या गया है? जीवन का सुख यात्रा के रोमांच में है या कि कल्पना के किसी आलीशान मंज़िल तक पहुंचने की भागम - भाग में? बेटा यह मंज़िल तो एक  मरिचिका है ..... छलावा है..... जहाँ पहुंच कर यह मालूम होता है कि ‘चले चलो कि वह मंज़िल अभी नहीं आई.....!” संतोष के पिता ‘फैज़’ की पंक्ती याद कर मुस्करा दिए.
       चाय नाश्ते के बाद जब विवेकानन्द ने शर्माजी को बताया कि संतोष ने उससे टोकन की राशी भी ले रखी है तो शर्माजी दुखी हो गये. संतोष ने उनसे यह बात छुपाई थी. उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि जब विवेकानन्द गाडी का सौदा उनके बेटे के साथ पक्का कर चुका है, और इसके लिये इतनी दूर पटना से आया है, तो गाडी उसे ही मिलेगी. संतोष के ऑफिस से लौटने के पहले ही विवेकानन्द शर्माजी से विदा ले चुका था.
अगले दिन संतोष के ऑफिस में बैठ कर गाडी के कागज़ात पूरे किए गए. संतोष ने ड्राफ्ट ले कर गाडी विवेकानन्द के हवाले कर दी और समीर ने गाडी पटना ले जाने के लिए एक भरोसेमन्द ड्राईवर का बन्दोबस्त कर दिया.
ड्राईवर हाईवे पर गाडी तेज़ी से भगा रहा था. विवेकानन्द पिछ्ली सीट पर बैठा था. खिडकी से आती हुई हवा अच्छी लग रही थी. लेकिन मन में तरह तरह के विचार आ रहे थे. उसे बार बार ऐसा लग रहा था कि जैसे वह चोरी की कार खरीद कर घर लौट रहा हो. वह सारे रास्ते यही सोचता रहा – ‘बडा कलाकार कौन था – पहला वाला या दूसरावाला !’
                                                                                                                                                  * * *

                                                 

                                                                                                                (हंस - जून '2012 में प्रकाशित )



Friday, May 25, 2012

ग़ज़ल - 2

क्यों  रौशनी  हुई  नहीं चराग़  ये  जले  तो थे
कुछ आप ने कहा नहीं गो लब मगर हिले तो थे

हज़ार  साल  तक  करें  किसी  का इंतज़ार हम
तवील  ज़िन्दगी   नहीं  बुलन्द  हौसले  तो  थे

मन्ज़िलें  तो  दूर  थीं    काफिले बिछड गए
मन्ज़िलों  की खोज में हम इक सहर चले तो थे

राहे  जुनूने – वस्ल में सिमट  गईं  थी  दूरियाँ
ज़माने  की  निगाह  में  हज़ार  फासले  तो थे

ये हाथ क्यों उठे नहीं ये दिल से कुछ न पूछिये
गो  शाह  के  मज़ार  पे  मुराद  ले गए तो थे

अजनबी  से शहर  में  ‘जमील’  अजनबी   हुए
यहीं कहीं  किसी डगर हम आप से  मिले तो थे

                                  (वागार्थ, मार्च ' 2012)

Saturday, April 28, 2012

ग़ज़ल - 3

समुन्दर है,  शहर  है,  लोगों  का  सैलाब   है                                                               परे  पडी  है ज़िन्दगी  और  आदमी  बेताब  है

चुरा कर फ्लोर का इंडेक्स बना लेते बडे टावर                                                             शहर   के   विकास   का   यह   नया  हिसाब  है

‘टेंडर’  निकलता  रोज़   सडकों के ‘रिपेयर’ का                                                             हमारे  घर  का   रास्ता   रहता  मगर  खराब   है

मल्टिप्लेक्स   मॉलों   की  रौनक़   हो गई   लैला                                                            मजनूँ    के   हाथ   में   बस   वही    गुलाब   है

कहीं  तो   मिंटों  में   ‘डेलिवर’  है  घर ‘ पिज़्ज़ा’                                                             और  कहीं   बीमार  को  एक  डॉक्टर   नायाब  है

जली   हुई   ट्रेनों   में   लगाते जा रहे   नए  डिब्बे                                                                        बमों   के  फटने   का   क्या  यही  जवाब  है
 
सुना है के कभी सोता नहीं  तेरा  शहर फिर भी                                          
हर एक शख्स की आंखों  में  रंगीन  ख्वाब है                                           
                        (कथाबिम्ब, मार्च - मई ' 2012)

Friday, November 18, 2011

रात: एक मुख्तसर लफ्ज़


तूने देखा था सवेरा
रौशनी, आफताब
इन्द्रधनुष के सात रंग
राहगुज़र पर उग आया सब्ज़ पौधा


 











तूने सुना था,
भौरों का गुंजन,
कोयल के मधुर गीत,
फूलों की सरगोशी,
झरनों का संगीत 
 
रात का वीरान आंगन
अनदेखा, अंजाना
मुर्दा औरत की सर्द गोद
डूबता सूरज,
दम तोडती लौ,
दूर गुमनाम पहाडियों में गूंजती खामोशी
वादियों में घिरती हुई पीली रात


 












तूने देखा था सहर
ठहरी हुई खामोश रात नहीं
दिन ढल जाने के लिए
रात एक मुख्तसर लफ्ज़ है

('हंस', अगस्त ' 2011)

Saturday, November 12, 2011

MUMBAI


No city is like Mumbai and no people like the Mumbaikar! What makes this city so different? You will perhaps never know if you have lived all your life here. But, you just cannot miss the point if you are an outsider.
                                              
You discover the City a little every day. As you begin to come to terms with the new life, it unfolds before you with all its glory and gore! It is like life itself - endearing and enchanting this minute, painful and weary the very next. And like life again it is always on the move. Every turn throws before you a new challenge, and every dawn a new opportunity!

As the days pass Mumbai permeates your body, it enters in to your soul. This is an intricate - intimate relationship from which there is no escape and severing of which will give you almost physical pain. Any wonder that all those who come to Mumbai become a part of it and hardly ever leave. When I landed here about seven years ago, I never thought it was going to be like a second birth! Thrust in to the gigantic cauldron of humanity each day has been a unique experience of life.

Local trains - life line of the city - the mad mad rush - the scramble to get in and the struggle to get out. Men packed like sardines in the compartments and yet at the very next station a few more will squeeze in! They hang precariously to the doors. Their hands locked in handcuff like grips above their heads. Singing and swinging together they travel every day to work, as if they were children taking joy ride on a toy train! At CST you can watch them getting off the train and making a beeline for their offices - like rows of ants moving in search of food and shelter. Mumbai locals are the first training grounds for the life in Mumbai. If you haven’t travelled in the local trains you haven’t seen Mumbai! And if you can board a Virar Fast at Andheri you must be a Mumbai veteran!

Travelling in the Mumbai locals made me learn the English language all over again. The electronic time table on the platform was my new book of alphabets. ‘A’ stood for Andheri, ‘B’ for Bandra, ‘C’ was Churchgate  and ‘D’ meant Dadar! If you are a good observer you can learn many other things. Where a person stands inside the train compartment clearly indicated how far he is going to travel. If he is standing deep inside then definitely he is travelling till the end of the route. If he is positioned near the door then he should be going only a short distance. The principle is simple. You should not stand in the way of those who need to disembark before you. Had Newton lived in Mumbai, he would have added a Fourth law of Motion to his existing three, and it would read something as follows:
“At any point of time the distance of a body from the door of the train is directly proportional to the distance of its destination.”

So as you come closer to your destination you must start moving closer to the door! And therefore it is very normal if the person behind you wanted to know where you were travelling to and wriggled his way ahead if his destination happened to be before yours! However, a single row of passengers are allowed to stand on each side of the passage as long as their backs are firmly glued to the partition wall and they don’t obstruct the movement of those coming in or going out.

Mumbai is rather infamous for its fast pace and busy life. Nobody has free time either for himself or for others. Even the eunuch who peeps through the window of your car at the traffic signal asking for money doesn’t wait if you take time to oblige! She will give you a nasty, dismissive look and moves ahead. For the Mumbaikar his busy schedule is the aphrodisiac of life. If he goes out of the city even for a few days he gets disoriented. Away from Mumbai life seems to stand still. Suddenly he is left with all the time and doesn’t know what to make of it. The breathless pace and the smell of sea in Mumbai make a heady mixture. You get intoxicated!

Living in Mumbai has its own pitfalls and privileges - the eternally dug up roads, the gaping manholes, the footpaths that either do not exist or are perennially under repairs. But on the flip side under such situations one is rarely left to lurch in the dark in Mumbai. There will be barriers or signs of caution put up for the benefit of the unsuspecting pedestrians or the over confident motorist. The same may not be true for other cities in the country.

Wherever you go in Mumbai a crowd accompanies you! Whether it is the local railway station, the movie theatre, shopping mall or the beach, you are in a sea of humanity. But there is a method in the madness. There is a sense of order and discipline in everything that goes on around you. People will silently form queues to utilize any service at a public place - even to purchase a glass of fruit juice at the road side stall! They will patiently wait for their turn to come. It is rare to find people relieving themselves on road side or at a secluded public place in this city. There is more civic sense in Mumbai than anywhere else in the country.

The smell of sea has a profound influence on the Mumbai life. Initially it seems repulsive but soon you get used to it. It is present everywhere.  It pervades your being and your belongings. You become so used to the smell that you start missing it elsewhere. It gives you a strange feeling of belonging. It is the odour of life - throbbing in flesh and blood. And whenever you get swayed in to the conniving cosmetic glitter of mundane Mumbai, the smell of sea reminds you of the realities of life. It brings you back to your senses.

It is the end of a hectic day and you are on your way home. You are passing through the narrow Bazar Road in Bandra. The shops are full of colourful commodities. Men, women and children are busy making small daily purchases. You can feel the salty corrosive soil under your feet and the smell of the heavy humid sea air enters your nostrils. You can see the filth and garbage strewed all around. But as you walk the lanes, the lively banter of the fisherwomen eager to sell off their remaining stock come drifting in to your ears. You watch mesmerized. Under the vegetable stall the old mausi is trying to feed her dozen and odd kittens. You can’t help a smile. Nowhere else in the world will you witness such difficult life being lived with so much ease and elan!

Tuesday, October 25, 2011

अन्ना हज़ारे

कभी कभी कुछ बातें
सुकून पहुंचाती हैं
अनायास ही
जुडा होता है उनसे
वह बीत गया कल
जहाँ कुछ तो ऐसा था
जिसे रखना था हमें
संजो कर
अपने वजूद की
अंतिम गहराईयों में
कुछ वैसे ही
की जैसे रखते हैं हम
सम्भाल कर
अपने पूर्वजों के धरोहर


आज के अखबार में छ्पी है
अन्ना की एक तस्वीर
लम्बी नाक और
उठती ठुड्डी के बीच
बनता हुआ
क्यूट’ सा कोण
चेहरे पर सरलता
भाव में तरलता
आँखों में व्यथा
और होठों पर मौन
सर पर तिरछी गाँधी टोपी
सफेद कुर्ता - सफेद धोती
जैसे किसी बीते युग का अवतार
टी.वी पर भी आ रहा था
अन्ना के अनशन का समाचार


भ्रष्टाचार के विरोध में 
शहरों की सडकों पर
जुलूस निकाले जा रहे थे
मुम्बई की लोकल ट्रेनों में
डेली पैसेंजर
तिरंगे झण्डे लहरा रहे थे
और स्कूलों में बच्चे
आन्दोलन की सफलता के लिए
देश भक्ति गीत गा रहे थे


ये तस्वीरों जैसे ले कर आई थीं
झलकियाँ अतीत की
नाचने लगे थे
आँखों के सामने
स्वतंत्रता संग्राम के मंज़र
तिरंगे के साए तले
आज़ादी की बातें
जोशो-ग़ज़ब के दिन
जागी हुई रातें
वे क़द्दावर नेता, वे सूफी, वे संत
जिनके रौशन किरदार से हुआ था
अन्याय और अन्धकार का अंत


टी.वी और अख़बारों में
समाचार तो और भी आए थे
लोकपाल बिल की ख़ातिर
एक महिला ने आत्म-दाह कर
अपने प्राण गँवाए थे
एक युवक ने लोकसभा में घुसकर
भारत माता की जय के
नारे लगाए थे
इन बिम्बों और प्रतिबिम्बों के बीच
महसूस तो यह होता था
कि किसी ने खोल दिए हों
सैकडों मुहाने उस नदी के 
जो बनी थी कल की यादों से 


वह बीत गया कल 
जहाँ कुछ तो ऐसा था
जिसे रखना था हमें
संजो कर
अपने वजूद की
अंतिम गहराईयों में
कुछ वैसे ही
कि जैसे रखते हैं हम
सम्भाल कर
अपने पूर्वजों के धरोहर

( 'कथाबिंब', जुलाई-सितम्बर ' 2011)