गुज़ारी थी तुमने कितनी ही रातें
बैठे सिरहाने नन्हीं परी के
ज्वर से तपते माथे पर
बर्फ की पट्टियां बदलते बदलते
बैठे सिरहाने नन्हीं परी के
ज्वर से तपते माथे पर
बर्फ की पट्टियां बदलते बदलते
नर्म तलवों को हथेली से
कुछ इस तरह सहलाते
कि जैसे उनका सारा ताप
सोख लोगे तुम
अपने ही शरीर में
जिस तरह कर लिया था आत्मसात
नीलकण्ठ ने
देवताओं की रक्षा के लिये
सागर मंथन का सारा विष
लेकिन वह नन्हीं परी
तौल कर हवा में अपने परों को
उड गई है आज
विस्तृत आकाश में
कुछ याद करो वह घडियां तुम
उन लम्बी काली रातों में
वे क्षण जो तुम्हारे अपने थे
जो मूक पडे थे वर्षों से
अब मुखरित हो कर कहते हैं
क्या मुझसे दोस्ती करोगे
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